Tuesday, April 15, 2025
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आजादी के बाद का बिहार-2: 1972 में लौटा एक पार्टी के CM का दौर, एक छात्र आंदोलन ने रखी कांग्रेस के पतन की नींव

सार

 

बिहार में 1971 के बाद कैसे फिर से एक पार्टी के मुख्यमंत्री का दौर लौटा? इस बदलाव के बावजूद आखिर क्यों राज्य में आठ साल के अंदर पांच मुख्यमंत्री बदल गए? कांग्रेस में फूट का राज्य की सियासत में क्या असर रहा? कैसे बिहार से इसी दौर में शुरू हुई जयप्रकाश नारायण की क्रांति ने पहले कांग्रेस को उखाड़ फेंका और फिर जेपी के नेतृत्व में बना जनता दल खुद ही बिखर गया? आइये जानते हैं…

विस्तार

बिहार में विधानसभा चुनावों और सरकार के बनने-गिरने की कहानी आजादी के बाद से ही काफी दिलचस्प रही है। पहले राज्य में 15 साल तक श्रीकृष्ण सिन्हा के नेतृत्व में कांग्रेस का एकछत्र राज, फिर पार्टी में ही एक के बाद एक मुख्यमंत्रियों का बदलाव। 1967 के बाद से अलग-अलग राजनीतिक दलों के मुख्यमंत्रियों का शासन और इसके बाद कांग्रेस में ही दो धड़ों के बनने से बिहार में सियासी उथल-पुथल।

अब बारी है बिहार की इससे आगे की राजनीति कहानी। कैसे राज्य में 1971 के बाद फिर से एक पार्टी के मुख्यमंत्री का दौर लौटा? इस बदलाव के बावजूद आखिर क्यों राज्य में आठ साल के अंदर पांच मुख्यमंत्री बदल गए? कांग्रेस में फूट का राज्य की सियासत में क्या असर रहा? कैसे बिहार से इसी दौर में शुरू हुई जयप्रकाश नारायण की क्रांति ने पहले कांग्रेस को उखाड़ फेंका और फिर जेपी के नेतृत्व में बना जनता दल खुद ही बिखर गया? आइये जानते हैं…

 

1. 1972: लोकसभा से लेकर विधानसभा तक बदली सत्ता की बयार

दिसंबर 1971 में भोला पासवान शास्त्री के मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देने के बाद बिहार में राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया। यह तब हटा, जब बिहार में लोकसभा चुनाव के साथ विधानसभा चुनाव का एलान हुआ और इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस (आर) को दोनों ही ओर जबरदस्त जीत मिली। बताया जाता है कि बिहार में आम लोग बहु-दलीय सिस्टम और इसकी अस्थिरता से तंग आ गए थे। बार-बार बदलती सत्तासीन पार्टियां और मुख्यमंत्रियों को देखते हुए बिहार ने इस बार निर्णायक स्तर पर वोटिंग की।

1972 में बिहार में 318 सीटों वाली विधानसभा में कांग्रेस ने 261 सीटों पर चुनाव लड़ा। पार्टी को 167 सीटों पर जीत मिली। यानी कांग्रेस अपने दम पर ही पूर्ण बहुमत हासिल करने में सफल हो गई। यानी यह तय हो गया कि अगले पांच साल बिहार को स्थिर सरकार मिलेगी। 1969 में हुए मध्यावधि चुनाव में जहां कांग्रेस को 30.12 फीसदी वोट के साथ 118 सीटें मिली थीं, तो वहीं 1972 में उसे 34.12 प्रतिशत वोट मिले थे।

दूसरी तरफ इस चुनाव में क्षेत्रीय दलों को भारी झटका लगा। जिन 20 क्षेत्रीय पार्टियों ने अपने उम्मीदवारों को जोर-शोर से उतारा था, उनमें से नौ का तो सूपड़ा साफ हो गया। हालांकि, निर्दलियों ने अपना किला बचाए रखा और 12 सीटों पर कब्जा जमा लिया।

 

 

 

 

* निर्दलियों में प्रजा सोशलिस्ट पार्टी से अलग होकर लड़ने वाले चार विधायक भी शामिल

  • 1972 के चुनाव में झारखंड क्षेत्र से जुड़ी पार्टियों को बड़ा नुकसान हुआ। पिछले चुनाव की दो पार्टियों के मुकाबले इस बार बिहार में झारखंड के हक की मांग वाली चार पार्टियों ने चुनाव लड़ा। लेकिन उनके कुल आठ उम्मीदवार विधानसभा पहुंचे।
  • इस चुनाव में सबसे बड़ा नुकसान समाजवादी दलों को हुआ। 1967 के बाद से ही सोशलिस्ट पार्टी सबसे बड़ा दल बनकर उभरी थी। हालांकि, इस बार 257 सीटों पर लड़ने के बावजूद उसे 34 सीटें हासिल हुईं।
  • पार्टी के कई अहम चेहरे- पूर्व पुलिस मंत्री और नेता प्रतिपक्ष रहे रामानंद तिवारी की भी हार हुई। इसके अलावा पूर्व खाद्य मंत्री श्रीकृष्ण सिंह और पार्टी के राज्य प्रमुख उपेंद्र नाथ वर्मा को भी शिकस्त मिली।
  • इस चुनाव में सबसे ज्यादा फायदा भाकपा को हुआ, जिसने पिछले चुनाव की 25 सीटों के मुकाबले 35 सीटें जीत लीं।

प्रधानमंत्री को मिली सीधे मुख्यमंत्री चुनने की ताकत, केदार पांडेय बने सीएम
केंद्र और बिहार की नई सरकार में इंदिरा गांधी का वर्चस्व कितना ज्यादा था, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि मुख्यमंत्री के चुनाव के लिए हुई कांग्रेस विधायक दल की बैठक सिर्फ दिखावा साबित हुई। सभी विधायकों ने मुख्यमंत्री चुनने के लिए इंदिरा गांधी को अधिकार दिया। इसके बाद 16 मार्च 1972 को पूर्व उद्योग मंत्री केदार पांडेय को मुख्यमंत्री नियुक्त किया गया। 19 मार्च को उनका शपथग्रहण हुआ।

फिर आया कांग्रेस में गुटबाजी का दौर
इंदिरा गांधी की जबरदस्त ताकत की वजह से केदार पांडेय की शुरुआत अच्छी रही। उन्होंने पद संभालने के तीन दिन बाद ही मंत्रिमंडल का बंटवारा तक कर दिया था। हालांकि, पार्टी नेताओं के बीच कुछ समय बाद ही गुटबाजी का दौर शुरू हो गया। बताया जाता है कि पार्टी पर कुछ समय बाद ही कद्दावर नेता एलएन मिश्र का गुट मजबूती से पकड़ बनाने लगा। इस प्रभाव को कम करने के लिए पांडेय ने अपने कैबिनेट से एलएन मिश्र के समर्थक कहे जाने वाले सात मंत्री बदल दिए। इनमें एक कैबिनेट स्तर और छह राज्य स्तर के मंत्री शामिल थे। हालांकि, इन सात मंत्रियों में से चार ने इस्तीफा देने से इनकार कर दिया। उनका तर्क था कि खुद केदार पांडेय को विधायक दल का समर्थन नहीं हासिल है।

गुटबाजी का पहला शिकार हुए केदार पांडेय
इसके बाद केदार पांडेय ने 27 मई 1973 को अपने पद से इस्तीफा दे दिया। हालांकि, इंदिरा गांधी के समर्थन की वजह से एक बार फिर राज्यपाल ने उन्हें सरकार बनाने का न्योता दिया। 28 मई को ही कांग्रेस के नए 23 सदस्यीय कैबिनेट का शपथग्रहण हुआ। इसमें इस्तीफे चौंकाने वाली बात यह है कि इस नए मंत्रालय में कुल 37 सदस्यों को शपथ लेनी थी। हालांकि, इनमें से 14 शपथग्रहण के लिए पहुंचे ही नहीं। इनमें दरोगा प्रसाद राय और जेएन मिश्र जैसे बड़े नेता शामिल थे। इन सभी 14 नेताओं ने अगले दिन यानी 29 मई को पद की शपथ ली।

इसके ठीक बाद एलएन मिश्र के समर्थकों ने केदार पांडेय को सीएम पद से हटाने के लिए हस्ताक्षर अभियान शुरू कराया। कांग्रेस आलाकमान को इस बगावत की गंभीरता समझ आ चुकी थी। ऐसे में पार्टी ने केदार पांडेय की तरफ से हटाए गए सात में से तीन मंत्रियों को फिर से कैबिनेट में लेने को कहा। इस तरह मुख्यमंत्री का एलएन मिश्र के समर्थकों को मंत्रिमंडल से हटाने का फैसला लगभग निष्क्रिय हो गया और कैबिनेट में कुल 40 मंत्री हो गए।

इतना ही नहीं केदार पांडेय के खिलाफ एलएन मिश्र के समर्थकों द्वारा हस्ताक्षर अभियान भी जारी रहा। आखिरकार 24 जून 1973 को विधायक दल की बैठक में दोनों गुटों के शक्ति परीक्षण का निर्णय हुआ। स्थिति यह थी कि खुद केदार पांडेय के कैबिनेट के 40 में से 24 मंत्रियों ने उनके खिलाफ मुहिम छेड़ दी। इनमें वित्त मंत्री डीपी राय से लेकर राज्यमंत्री राधा नंदन झा तक के नाम शामिल थे। इन मंत्रियों ने कुछ समय बाद ही कैबिनेट से इस्तीफा भी देने का फैसला किया। इसी के साथ मुख्यमंत्री केदार पांडेय ने सत्ता में आने के 15 महीने बाद सीएम पद छोड़ने का फैसला किया। कांग्रेस विधायक दल की बैठक में भी वे अपने लिए विधायकों का समर्थन हासिल नहीं कर पाए।

बिहार के चुनावी गलियारों में तब एक ही चर्चा थी- इंदिरा गांधी की पसंद को विपक्ष ने नहीं, अपनी ही पार्टी के नेताओं ने बेरहमी से खत्म कर दिया। मजेदार बात यह है कि केदार पांडेय को जिस नेता- एलएन मिश्र ने बाहर किया था, वह अब इंदिरा गांधी सरकार में ही रेलवे मंत्री थे और एक जमाने में पांडेय के राजनीतिक गुरु हुआ करते थे। हालांकि, पांडेय का कहना था कि पैसे और बाहुबल की ताकत के आगे वे कुछ नहीं थे। इस तरह जून 1973 में पांडेय के मुख्यमंत्री के तौर पर सफर का अंत हुआ।

2. 1973: बिहार को मिला पहला मुस्लिम मुख्यमंत्री

बिहार में केदार पांडेय की विदाई के बाद कांग्रेस में भी असमंजस की स्थिति पैदा हो गई। दरअसल, यहां कांग्रेस आलाकमान ने सिद्धार्थ शंकर रॉय को सीएम के चुनाव के लिए भेजा। हालांकि, एलएन मिश्र के साथ बैठक के बाद भी पांडेय का उत्तराधिकारी नहीं मिल पाया। एक बार फिर मुख्यमंत्री चुनने का अधिकार मिला प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को। उन्होंने इस बार बिहार के नेतृत्व के लिए बिहार विधान परिषद के अध्यक्ष अब्दुल गफूर को चुना। इस बारे में एलएन मिश्र और केदार पांडेय दोनों को कांग्रेस अध्यक्ष शंकर दयाल शर्मा के घर पर रखी एक बैठक में बता दिया गया।

माना जाता है कि इंदिरा गांधी के गफूर को चुनने की वजह एलएन मिश्र ही थे, जो कि दिल्ली में बैठकर बिहार की राजनीति को उस दौर में नियंत्रित करते थे। दूसरी तरफ केदार पांडेय इस पद पर विधानसभा स्पीकर हरिनाथ मिश्र को चाहते थे। लेकिन उनकी पसंद को अनसुना करते हुए 2 जुलाई 1973 को अब्दुल गफूर को शपथ दिला दी गई। 1967 के बाद से यह 11वीं बार था, जब बिहार में सरकार परिवर्तन हुआ था। यानी महज छह साल में 11वीं बार। इस तरह अब्दुल गफूर बिहार के पहले मुस्लिम मुख्यमंत्री और बीपी मंडल के बाद विधान परिषद से आकर सीएम बनने वाले दूसरे नेता बने।

इस छात्र आंदोलन का ही असर था कि कांग्रेस की लोकप्रियता उस समय जबरदस्त रूप से गिर गई। बाद में इसी आंदोलन के कई युवा छात्र चेहरों ने राज्य की सियासत में जगह बनाई और कांग्रेस की मुख्य पार्टी की विरासत को दोबारा नहीं उभरने दिया।

गुटबाजी का दूसरा शिकार हुए सीएम अब्दुल गफूर
बताया जाता है कि केदार पांडेय की तरह ही सीएम रहते हुए अब्दुल गफूर भी एलएन मिश्र गुट से परेशान हो चुके थे। उन्होंने छात्र आंदोलन के बहाने मिश्र गुट के कुछ नेताओं को हटाने का भी प्रयास किया। कहा गया कि एलएन मिश्र गुट के कुछ मंत्रियों पर आरोप भी लगे थे। हालांकि, ऐसा करने से सीएम की परेशानियां कम नहीं हुईं, क्योंकि नए कैबिनेट में भी कुछ ऐसे नाम शामिल किए गए, जिन पर आरोप लग चुके थे। दूसरी तरफ एलएन मिश्र गुट को भी मुख्यमंत्री गफूर की वफादारी पर शक होने लगा। इस दौर में बिहार में कांग्रेस की अंदरूनी लड़ाई अपने चरम पर थी।

इस बीच कांग्रेस के 63 नेताओं ने एलएन मिश्र के खिलाफ बगावत छेड़ दी। इनका कहना था कि जब तक बिहार में विधायक दल का नेतृत्व नहीं बदलता और रेल मंत्री (एलएन मिश्र) के गुट से अलग व्यक्ति मुख्यमंत्री नहीं बनता, तब तक छात्रों के आंदोलन को शांत करना मुश्किल होगा। इन नेताओं ने कांग्रेस अध्यक्ष से मिलकर उनसे अब्दुल गफूर को हटाने की मांग कर दी। बताया जाता है कि इस दौरान मुख्यमंत्री ने हाईकमान से दो मांगें रखीं- या तो एलएन मिश्र के करीबी नेताओं को उनके कैबिनेट से हटाया जाए या उनसे इस्तीफा ले लिया जाए। हाईकमान ने 11 मार्च 1975 को दूसरे विकल्प को स्वीकार किया, लेकिन वे पद से आधिकारिक तौर पर 11 अप्रैल को हटे। वजह थी कांग्रेस की बिहार में नए मुख्यमंत्री की तलाश, जो कि आगे पार्टी को किसी भी तरह की उठापटक से बचा सके।

3. 1975: शुरू हुआ जगन्नाथ मिश्र का दौर
1972 में कांग्रेस में जो गुटबाजी का खेल शुरू हुआ था, वह अब्दुल गफूर के मुख्यमंत्री पद से हटने के बाद भी नहीं रुका। एक बार फिर पूर्व मुख्यमंत्री केदार पांडेय सीएम बनने की मंशा के साथ इस रेस में शामिल हो गए। वहीं, दूसरा गुट था कांग्रेस नेता एलएन मिश्र (जिनका जनवरी 1975 में निधन हो गया) के छोटे भाई जगन्नाथ मिश्र का। इस दौरान कांग्रेस के कुछ और कद्दावर नेताओं, जैसे हरिनाथ मिश्र, बिहार विधानसभा के स्पीकर सीताराम केसरी के नाम भी उछले। हालांकि, इन नामों को गंभीरता से नहीं लिया गया।

विधायक दल ने एक बार फिर मुख्यमंत्री चुनने के लिए इंदिरा गांधी से बात की। प्रधानमंत्री के निर्देशों के बाद केदार पांडेय के सामने कोई चारा नहीं रहा और जगन्नाथ मिश्र एकमत से बिहार के नए मुख्यमंत्री चुने गए। इंदिरा के आदेश की ताकत विधायक दल की बैठक में भी दिखी, जहां अब्दुल गफूर ने मिश्र के नाम का प्रस्ताव रखा और केदार पांडेय ने इसका समर्थन किया।

11 अप्रैल को जगन्नाथ मिश्र समेत 16 नेताओं ने मंत्रिपद की शपथ ली। इस तरह जगन्नाथ आजादी के बाद से 28 साल में ही बिहार के 15वें मुख्यमंत्री रहे। वहीं, 1967 के बाद से वे 12वें सीएम थे।

इमरजेंसी की मार से गिरी बिहार की कांग्रेस सरकार
अप्रैल 1975 से अप्रैल 1977 का दौर बिहार के साथ-साथ पूरे देश के लिए कई बदलावों का दौर रहा। दरअसल, 12 मई 1975 को इलाहाबाद हाईकोर्ट ने तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के 1971 में लोकसभा में चुनाव को शून्य करार दे दिया। इतना ही नहीं कोर्ट ने भ्रष्टाचार के मामले में उनके चुनाव लड़ने पर छह साल की रोक भी लगा दी। इस फैसले ने देश में राजनीतिक तूफान ला दिया। भाकपा को छोड़ पूरे विपक्ष ने इंदिरा गांधी के इस्तीफे की मांग कर दी। इतना ही नहीं पूरे देश में प्रदर्शन की चेतावनी भी दी गई। इसके बाद 26 जून को केंद्र की कांग्रेस सरकार ने वो किया, जिसकी किसी को उम्मीद भी नहीं थी। देश में आपातकाल का एलान हो गया।

इस दौर में जहां बिहार में कांग्रेस अंदरूनी बगावत का सामना कर रही थी, तो वहीं बाहर से पार्टी के सभी नेता इंदिरा गांधी के समर्थन में खड़े थे। इन नेताओं की सीएम मिश्र से सबसे बड़ी शिकायत दो पूर्व मुख्यमंत्रियों- अब्दुल गफूर और केदार पांडेय को शामिल न करने और उनके समर्थकों को मंत्रिमंडल में ठीक से जगह न देने को लेकर थी।

जगन्नाथ मिश्र की सत्ता जाने की मुख्य वजह इंदिरा गांधी की इमरजेंसी लगाने की गलती ही मानी जाती है। जिसकी कीमत उन्हें 1977 में चुकानी पड़ी, जब 30 अप्रैल 1977 को कार्यकारी राष्ट्रपति ने नौ राज्यों की विधानसभा को को भंग करने का आदेश जारी कर दिया और राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया। कांग्रेस शासित जिन राज्यों में राष्ट्रपति शासन लगा था, उनमें उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल, ओडिशा, मध्य प्रदेश, पंजाब, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश और राजस्थान शामिल थे। इसके बाद बिहार ने 24 जून 1977 तक राष्ट्रपति शासन देखा।

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